सर्वभाषाजननी संस्कृतभाषा

शुक्रवार, 26 मार्च 2010

शनिवार, 20 मार्च 2010

सुख और आनंद मे भेद

ईश्वर, जीव, प्रकृति ये तीन अनादि तत्त्व हैं। इनमे प्रकृति सत् अर्थात सत्तात्मक अनादि तत्व है जो सृष्टि का उपादान कारण और जड़ स्वरुप है। जीव सत्  और चित् अर्थात चेतन सत्ता है जिसके इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दु:ख, और ज्ञानादि गुण हैं। ईश्वर सच्चिदानंद स्वरुप है। सृष्टि की उत्त्पत्ति, स्थिति, प्रलय करना और जीवों को उनके कर्मों के अनुसार यथायोग्य फ़ल देना अर्थात  न्याय करना ये दो कार्य हैं। जीव और ईश्वर दोनो चेतन स्वरुप, दोनो पवित्र स्वभाव, अविनाशी और धार्मिकता से युक्त हैं। ईश्वर से सब कार्य धर्मयुक्त एवं जीव के मिश्रित जानने चाहिए।

सुख और आनंद मे भेद

जो इन्द्रियों को अच्छा लगे, वह सुख "सुहितं खेभ्य:" कहलाता है। शाश्वत सुख को आनंद कहते हैं। यह आत्मा का विषय है। यद्यपि इन्द्रिय जन्य सुख-दु:खादि का कर्ता-भोक्ता भी आत्मा है।जिसके पास जो वस्तु नही होती वह उसकी कामना करता है। प्रकृति जड़ होने के कारण जीव को क्षणि सुखानुभुति करा सकती है। शाश्वत सुख और आनंद के लिए उसे परमे्श्वर की ओर मुड़ना ही पड़ेगा।